Sunday, December 14, 2008

भय

क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम
शान्ति के शोरगुल से परेशान होकर
दिवाली के बचे पटाखे
गली के बच्चों में बांटने निकल पड़े हो ।

या फिर कभी
चुप्पी के चीत्कार ने
तुम्हारे कानों के पर्दे फाड़ डाले हों ।

या फिर कभी
सन्नाटे की सनसनाहट से
तुम भागते फिरे हो
अपने से, अपने-अपनों से दूर ।

या फिर कभी
खामोशी की चीख
या
नीरवता की हलचल ने
तुम्हारी रातों की नींद हराम कर दी हो ।

या फिर कभी
मौन की कर्कश ध्वनि
मंडराती रही हो तुम्हारे चारों ओर ।

या फिर कभी
मूक अपेक्षाओं को
पूरा न कर पाने की असमर्थता
सालती रही हो तुम्हे
दिन-रात

या फिर कभी
ऐसा लगा हो तुम्हें
कि अव्यक्त शब्दों के
उपलक्षति अर्थ खोजने में ही
शेष हो जाएगा तुम्हारा जीवन ।

तो जान लो तुम
कि
तुम जिन्‍दा हो ।
यही जीवन है ।

यहां
शान्ति का शोरगुल
चुप्पी की चीत्कार
सन्नाटे की सनसनाहट
खामोशी की चीख
नीरवता की हल-चल
मौन की कर्कश घ्वनि

सभी महसूस करते हैं
कभी-न-कभी
जीवन में

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