अचंभित हैं न
कि
हंस कैसे रहा हूं
वह भी ऐसे जहान में
जहा लोंगों ने
रंग-बिरंगे सपनों के जाल बुनकर
मेरे मन के पंछी को
आकृष्ट कर
बहेलिए-सा जकड़ लिया है
और फिर
इस बदरंग यादों के जाल में
सिसकता
आहें भरता
टूटे सपने-सा
बिखर कर चूर होता देख
तटस्थ खामोंशी से
आंखें फेर ली हैं ।
नहीं जनाब
मैं हंस नहीं रहा हूं
मैं तो मात्र
हंसने का अभ्यास कर रहा हूं
कि
खुदा भूले से यदि
कभी
मेरे हाथों की लकीरों में
वही रंगीन सपने लिख दे
तब हंसना भूल न चुका हो
याद रहे ।
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