जब भी तुम मिलकर बिछुड़ती
और पूछती -
'कहां मिलोगे फिर ?*
जाने क्यों यह अहसास-सा होता था कि
अब यह साथ ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा ।
मैं फिर सोचता -
'शंका केवल स्थान-भर की ही तो है,
शेष तो सब निश्चित है ।'
अहसास का भ्रम कुछ और गहराया,
जब तुमने उस दिन,
कदम-भर पीछे हट पूछा था -
'कब मिलोगे फिर ?*
मैंने सोचा
क्या अब हर सुबह
दिन से बिछुड़ते चांद को
अपने लौटने का समय दोहराना होगा क्या।
तब तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में
यक-ब-यक
चांद के ही बोल फूट पड़े थे -
'सूरज के ढलने पर'
जान गया था मैं,
कि तुम्हारे खुले होंठों को यह उत्तर
कुछ और ही कह गया था जैसे ।
और यूं भी
'ढलते सूरज' का अर्थ
अन्यथा ही लिया जाता है ।
पर एक विश्वास था मेरा कि
'मेरे अपने'
मेरी किसी भी बात का अन्यथा अर्थ नहीं लगा सकते ।
पर तुम 'मेरी' कहां थी
तुम्हारा वह होंठों के कोनों से मुस्काना और
झट
सायास
आंखें नीची कर पूछना -
'क्यों ? सूरज के ढलने पर क्यों ?*
स्पष्ट कह गया कि -
'अर्थ का अनर्थ' हो चुका है ।
तब इस
अनर्थ से विरक्त
कहा था मैंने
'क्यांकि अंधेरे की झीनी चादर तले ही हावी हो सकता है
पाप
प्यार पर ।
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