Sunday, December 28, 2008

तेरी याद

वो जाड़ों की रिसती रात
सीली सी आगोश में
उफनते अहसास,
भूल जाने दो मुझे,
उनमें अब क्‍या रखा है.......
बस... तेरी याद को साथ सुला रखा है।

तेरे स्‍पर्श का मूक संवाद
तेरे जिस्‍म के हर हिस्‍से का स्‍वाद
वह नमकीन सा मीठा अहसास
आ रहा है याद
मेरे जिस्‍म के हर एक हिस्‍से को
जिसने उसे चखा है......
बस... तेरी याद को साथ सुला रखा है।

नये रिश्‍तों की तपिश से
ठिठुरती सेज
उबलते उच्‍छवासों की चादर ओढ़े
सिहरते, सिमटते जज्‍बातों को
सीने से लगा रखा है.....
बस... तेरी याद को साथ सुला रखा है.

Monday, December 22, 2008

भय

सच है कि मैं
खोना नहीं चाहता था तुम्‍हें ।

तुम भी
पाना चाहती थी मुझे ।

यह भी सच्‍च है
तुम मेरी थी
तुम्‍हें खोने का भय भी
मेरा भय था ।

पर
मैं नहीं था
तुम्‍हारा ।

तुम चाहती थी मुझे
अपना बनाना
पर तुम्‍हें मुझे खोने का भय नहीं था ।

इसलिए
समझ नहीं पायी तुम
कि
किसी अपने को खोने का भय
कहीं अधिक भयभीत करता है
अपनी मौत के भी भय से ।

एक कतरा आसमान

उसकी भोगी हुई सच्‍चाई
तेरी कल्‍पना की उडान
अरमानों का अफसाना
एक कतरा आसमान

उसकी कुर्बानी का जज्‍़बा
तेरे लूटने के अरमान
आरज़ू में है सिमटा
एक कतरा आसमान

उसकी बेची हुई अस्‍मत
तेरी रिश्‍तों की दुकान
बिकता नहीं, है अनमोल
एक कतरा आसमान

उसकी बेबाक गवाही
तेरे झूठे वो ब्‍यान
अल्‍फाज़ों का है पुलिन्‍दा
एक कतरा आसमान

उसकी वेदों की थाती
तेरी पाक कुरान
पाकीज़ा इबादत है
एक कतरा आसमान

उसकी मीठी सी गज़ल
तेरे तीखे व्‍यंग्‍य-बांण
फ़सानों में पिरोया है
एक कतरा आसमान

उसकी खामोश इबादत
तेरी बुलन्‍द अज़ान
छोटी सी एक आशा
एक कतरा आसमान

Sunday, December 14, 2008

मेरा कमरा

मेरे कमरे में चारो ओर
खिड़कियाँ ही खिड़कियाँ हैं,
हवा
सायें- सायें
इन में से गुज़रती है ।
परन्तु फिर भी
इसमें मेरा दम घुटता है ।

मेरे कमरे का दरवाज़
हमेशा खुला रहता है ।
चाँद, सूरज, तारे
सभी झांकते हैं इसमें,
परन्तु फिर भी
यह कल-कोठरी सा गमकता रहता है ।

मेरे कमरे की छत
मेरे कद से काफी ऊँची है ।
मैं चाह कर भी
उसे छू नहीं सकता,
परन्तु फिर भी मुझे ऐसा अहसास होता है,
जैसे मैं उसका बोझ लदे हुए हूँ ।

मेरे कमरे का फर्श
खूबसूरत संग-मर-मर का है,
एकदम ठोस और मजबूत
परन्तु फिर भी मुझे लगता है,
मेरे पाँवों तले ज़मीन नहीं है ।

भय

क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम
शान्ति के शोरगुल से परेशान होकर
दिवाली के बचे पटाखे
गली के बच्चों में बांटने निकल पड़े हो ।

या फिर कभी
चुप्पी के चीत्कार ने
तुम्हारे कानों के पर्दे फाड़ डाले हों ।

या फिर कभी
सन्नाटे की सनसनाहट से
तुम भागते फिरे हो
अपने से, अपने-अपनों से दूर ।

या फिर कभी
खामोशी की चीख
या
नीरवता की हलचल ने
तुम्हारी रातों की नींद हराम कर दी हो ।

या फिर कभी
मौन की कर्कश ध्वनि
मंडराती रही हो तुम्हारे चारों ओर ।

या फिर कभी
मूक अपेक्षाओं को
पूरा न कर पाने की असमर्थता
सालती रही हो तुम्हे
दिन-रात

या फिर कभी
ऐसा लगा हो तुम्हें
कि अव्यक्त शब्दों के
उपलक्षति अर्थ खोजने में ही
शेष हो जाएगा तुम्हारा जीवन ।

तो जान लो तुम
कि
तुम जिन्‍दा हो ।
यही जीवन है ।

यहां
शान्ति का शोरगुल
चुप्पी की चीत्कार
सन्नाटे की सनसनाहट
खामोशी की चीख
नीरवता की हल-चल
मौन की कर्कश घ्वनि

सभी महसूस करते हैं
कभी-न-कभी
जीवन में

जीवन

क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम
शान्ति के शोरगुल से परेशान होकर
दिवाली के बचे पटाखे
गली के बच्चों में बांटने निकल पड़े हो ।

या फिर कभी
चुप्पी के चीत्कार ने
तुम्हारे कानों के पर्दे फाड़ डाले हों ।

या फिर कभी
सन्नाटे की सनसनाहट से
तुम भागते फिरे हो
अपने से, अपने-अपनों से दूर ।

या फिर कभी
खामोशी की चीख
या
नीरवता की हलचल ने
तुम्हारी रातों की नींद हराम कर दी हो ।

या फिर कभी
मौन की कर्कश ध्वनि
मंडराती रही हो तुम्हारे चारों ओर ।

या फिर कभी
मूक अपेक्षाओं को
पूरा न कर पाने की असमर्थता
सालती रही हो तुम्हे
दिन-रात




या फिर कभी
ऐसा लगा हो तुम्हें
कि अव्यक्त शब्दों के
उपलक्षति अर्थ खोजने में ही
शेष हो जाएगा तुम्हारा जीवन ।

तो जान लो तुम
कि
तुम जिन्‍दा हो ।
यही जीवन है ।

यहां
शान्ति का शोरगुल
चुप्पी की चीत्कार
सन्नाटे की सनसनाहट
खामोशी की चीख
नीरवता की हल-चल
मौन की ककZश घ्वनि

सभी महसूस करते हैं
कभी-न-कभी
जीवन में

अभ्यास

अचंभित हैं न
कि
हंस कैसे रहा हूं
वह भी ऐसे जहान में
जहा लोंगों ने
रंग-बिरंगे सपनों के जाल बुनकर
मेरे मन के पंछी को
आकृष्ट कर
बहेलिए-सा जकड़ लिया है
और फिर
इस बदरंग यादों के जाल में
सिसकता
आहें भरता
टूटे सपने-सा
बिखर कर चूर होता देख
तटस्थ खामोंशी से
आंखें फेर ली हैं ।

नहीं जनाब
मैं हंस नहीं रहा हूं
मैं तो मात्र
हंसने का अभ्यास कर रहा हूं
कि
खुदा भूले से यदि
कभी
मेरे हाथों की लकीरों में
वही रंगीन सपने लिख दे
तब हंसना भूल न चुका हो
याद रहे ।

दोस्त

झक सफेद रूमाल से
हाथों को पोंछता
मुस्कुराता हुआ
गर्मजोशी से
वह
मेरी ओर आगे बढ़ा ।

हाथ मिलाने को तत्पर
खुली दायीं हथेली में,
मेरा दाया हाथ थाम
हौले-हौले सहलाता
थामे खड़ा रहा
कुछ देर ।

और फिर
दोनों हाथों से
मेरे कंधों को मीठी-सी दाब दे
वह आगे निकल गया ।

अचानक
सामने आदमकद आइने में मैने देखा
वह पलटा
ठीक मेरी पीठ के पीछे
उसके वही दोनो हाथ
खामोशी से
मेरी गरदन की ओर बढ़ने लगे ।

इससे पहले कि मैं संभलूं
मेरा दम घुटने लगा
मुझे वहीं छोड़
उसी झक सफेद रूमाल से
हाथों को पोंछता
मुस्कुराता हुआ
खुली हथेली लिए
गर्मजोशी से
वह आगे बढ़ गया ।

जब तुम साथ थी

बन्द मुट्ठी में मेरी कायनात थी,
जब तुम साथ थी तो क्या बात थी ।

यूं ही चलता रहा खुद में खोया हुआ,
यादों में तेरी मैं मदहोश सा ।
हर खुशी का मेरी तुम ही आधार थी,
जब तुम ......................................................॥

मैंने मांगी थी खुशिंया तेरे प्यार की,
तूने वायदों से मुझको दिलासे दिए ।
हकीकत मैं समझा, तू तो बस ख्वाब थी ॥
जब तुम ......................................................॥

कह न पाया कभी हाले दिल तुझसे मैं
बात दिल की तेरी, तेरे दिल में रही ।
मैं भी मजबूर था, तुम भी लाचार थी,
जब तुम ......................................................॥

इकरार

उसका
यूं हल्के से मुस्कुरा कर
झुकी-झुकी नज़रों से
नकारना,
और फिर सराबोर आंखों से
आमन्त्रित-सा कर
एकटक निहारना
क्या भुला पाउंगा कभी ।

वह
अगर सीधे-से
'हां' कर देती
तो बचता ही क्या
याद रखने को
सब भूल जाता ।

वह भी
शायद
नहीं चाहती थी कि
मैं
उसे भुला दूं
इसलिए तो........................

कैसे भूलूं

कैसे भूलूं
उस खामोश स्याह रात में
पायल का छनकना
कैसे भूलूं ।

बरसात की बूंदों का घुघंरू सा खनकना
और थाप पे उनकी दिलों का धडकना
कैसे भूलूं
कैसे भूलूं ......................

चांदनी रात में घर से वो छिप-छिप के निकलना
राह में हर अपने बेगाने से छिपना
और आहट के किसी कि
वो बाहों में सिमटना
कैसे भूलूं
कैसे भूलूं ......................

बढ़े हाथ को आंखों के कोनों से वो तकना
शर्माना, झिझकना, इनकार भी करना
फिर झट से उसे थाम
यूं पास खिसकना
कैसे भूलूं
कैसे भूलूं ......................

'क्यों'

जब भी तुम मिलकर बिछुड़ती
और पूछती -
'कहां मिलोगे फिर ?*

जाने क्यों यह अहसास-सा होता था कि
अब यह साथ ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा ।

मैं फिर सोचता -
'शंका केवल स्थान-भर की ही तो है,
शेष तो सब निश्चित है ।'

अहसास का भ्रम कुछ और गहराया,
जब तुमने उस दिन,
कदम-भर पीछे हट पूछा था -
'कब मिलोगे फिर ?*

मैंने सोचा
क्या अब हर सुबह
दिन से बिछुड़ते चांद को
अपने लौटने का समय दोहराना होगा क्‍या।

तब तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में
यक-ब-यक
चांद के ही बोल फूट पड़े थे -
'सूरज के ढलने पर'

जान गया था मैं,
कि तुम्हारे खुले होंठों को यह उत्तर
कुछ और ही कह गया था जैसे ।


और यूं भी
'ढलते सूरज' का अर्थ
अन्यथा ही लिया जाता है ।

पर एक विश्वास था मेरा कि
'मेरे अपने'
मेरी किसी भी बात का अन्यथा अर्थ नहीं लगा सकते ।

पर तुम 'मेरी' कहां थी
तुम्हारा वह होंठों के कोनों से मुस्काना और
झट
सायास
आंखें नीची कर पूछना -
'क्यों ? सूरज के ढलने पर क्यों ?*
स्‍पष्‍ट कह गया कि -
'अर्थ का अनर्थ' हो चुका है ।

तब इस
अनर्थ से विरक्त
कहा था मैंने

'क्‍यांकि अंधेरे की झीनी चादर तले ही हावी हो सकता है
पाप
प्‍यार पर ।

कुछ भी तो नहीं

मुझे नहीं मालूम
'कुछ होना' क्या होता है
तुम्ही नें कहा था ना कि
'क्या था हमारे बीच'
- 'कुछ भी तो नहीं'

पर सोचता हूँ -

कुछ न होता तो मैं हू-ब-हू वही क्यों करता जो तुमने कहा था,
और तुम भी मुझे वह सब करने को किस अधिकार से कह पाती

कुछ न होता तो क्यों आज तुम मेरी परेशानी में यू परेशान होती
और क्यों मैं महसूसता यूं पहले सी ही सिहरन फिर से

कुछ न होता तो क्योंकर शामिल रहता तुम्हारी यादों मे मैं
और क्यों भुला न पाता मैं तुम्हें यूं सालों-साल।

कुछ था तभी तो मैंने मांगा था तुम्हें तुमसे ।
कुछ था तभी तो तुमने 'हां' कहा था - तत्क्षण
कुछ था तभी तो तुम्‍हारे जाने से जिन्‍दगी के सारे मकसद खत्‍म हो गए थे
कुछ था तभी तो आज भी उस खोने की टूटन बाकी है
कुछ था तभी तो वह अनकही तमन्नाएं कचोटती हैं तुम्हें अभी भी

न होता कुछ तो मेरा दिल
कम-से-कम आज तो मेरे इख्तयार में होता
और तुम भी यूं अपनों ही की तरह मुझे भूल जाने का
इससार फिर से न कर पाती उसी अधिकार के साथ

शायद 'कुछ भी तो नहीं' था
तभी मैं यू फिर-से विलग हो गया हूँ तुमसे
मात्र तुम्हारे कहने भर से ।

विश्वास

था विश्वास कि
बुलांऊगा मैं तो
ठहर जाओगी तुम ।

क्या हुआ गर अजमाया नहीं था मैंने
- गहराई का माप केवल
कूद कर हत होने से ही होता है क्या ?

तो फिर
यह विश्वास
क्योंकर बे-आधार हुआ ।

गहराई
इसकी भी महसूसी है मैंने
तुम्हारी खोई-खोई, ढूंढती-सी आंखों में,
तम्हारे अबोध स्पर्श की मादकता में,
और तुम्हारी आह के उच्छवासों में ।

पर इस खोखली गहराई के घने अंधेरे
मुझे सदा-सदा अपने मोहजाल में बांध
विभ्रमित नहीं कर सकते ।

अपनी ही पुकार की प्रतिध्वनि की गूंज
जब इनकी सूनी सीमाओं से टकरा
मेरे ही कानों के पर्दे
तार-तार कर देती है ।
तब इस गहराई का मुखौटा
पके गुलाब सा झड़ जाता है ।
और शेष रहता है -
उपेक्षित नज़रों का
शिद्दत से इन्तज़ार करता
बदशक्ल
ठूंठ
इस सच्चाई को दोहराता कि -
अंध विश्वास में ठगे जाना कहां की समझदारी है ॥

चींटियों सी यादें

दिन पर दिन
इंच-दर-इंच
धंसता ही जा रहा हूं
गहरे और गहरे ।

इस सीलन भरे अंधकार में

लाल छोटी चींटियों सी यादें
नोचती
कचोटती
अतीत के हर उजले पलांश को
एक-एक कर
सामने ला पटकती हैं

उजले पलों की नुकीली
सुइयों-सी किरणें
अंधकार के अहसास को
और गहराती हैं
और
तार-तार कर जाती है
इस दिल को ।