Sunday, February 1, 2009

निरीह मन

अधखिली सुबह की खुमारी ओढ़े
अपने ही गर्म बदन की तपिश
बिस्‍तर पर छोड़ उठा
तो मन

एकदम शान्‍त था...
प्राचीन शिव-मन्दिर के
बूड़े पीपल के तले वाले
उस छोटे-से तालाब सा
एकदम शान्‍त...

अंधेरी खामोश रात
रातभर मेरे सिरहाने बैठ
अपनी निशब्‍द थपकियों से
झाड़ती रही थी
पिछले दिन की घूल..
मेरे तन-बदन
तथा दिल और मन से
गहरी पैठी धूल...
और धूल का गहरा पैठा हर अंश...

कितना मासूम लग रहा है यह दिन
अभी-अभी मुस्‍कुराना सीखे शिशु की
बालसुलभ मुस्‍कान सा...
नरम,
निश्‍छल

मालूम है मुझे
पहर-दर-पहर
आस्‍तीनों में छिपे
इस दिन के हाथों के बढ़ते नाखून
शाम ढलते-ढलते
लहू-लुहान कर
इन निरीह मन को पटक जाएंगे
फिर
अंधेरी खामोश रात की
कोसी-कोसी
मखमली गोद में...

पहर-दर-पहर
खूंखार होते उस आदमखोर दिन से
कितने यत्‍नों से
सहेज कर रखी होंगी यह निशब्‍द थपकियां
इस खामोश रात ने
मेरे लिए


सिर्फ मेरे लिए...

4 comments:

Anonymous said...

सुंदर रचनाएँ हैं। बधाई!!

पूर्णिमा वर्मन

Unknown said...

bahut bahur sundar. ekdum man ko choo gayi.

ark said...

athi sundar. rukhe banker ki kalam se itni rasmai kavitayen..viswash nahi hota.

Virender Rai said...

स्मिति धन्‍यवाद.......

रामा........ मै जानता हू यह कामेंट्स आपने किस से लिखवाऐ हैं. हा हा हा