अपने ही गर्म बदन की तपिश
बिस्तर पर छोड़ उठा
तो मन
एकदम शान्त था...
प्राचीन शिव-मन्दिर के
बूड़े पीपल के तले वाले
उस छोटे-से तालाब सा
एकदम शान्त...
अंधेरी खामोश रात
रातभर मेरे सिरहाने बैठ
अपनी निशब्द थपकियों से
झाड़ती रही थी
पिछले दिन की घूल..
मेरे तन-बदन
तथा दिल और मन से
गहरी पैठी धूल...
और धूल का गहरा पैठा हर अंश...
कितना मासूम लग रहा है यह दिन
अभी-अभी मुस्कुराना सीखे शिशु की
बालसुलभ मुस्कान सा...
नरम,
निश्छल
मालूम है मुझे
पहर-दर-पहर
आस्तीनों में छिपे
इस दिन के हाथों के बढ़ते नाखून
शाम ढलते-ढलते
लहू-लुहान कर
इन निरीह मन को पटक जाएंगे
फिर
अंधेरी खामोश रात की
कोसी-कोसी
मखमली गोद में...
पहर-दर-पहर
खूंखार होते उस आदमखोर दिन से
कितने यत्नों से
सहेज कर रखी होंगी यह निशब्द थपकियां
इस खामोश रात ने
मेरे लिए
सिर्फ मेरे लिए...
4 comments:
सुंदर रचनाएँ हैं। बधाई!!
पूर्णिमा वर्मन
bahut bahur sundar. ekdum man ko choo gayi.
athi sundar. rukhe banker ki kalam se itni rasmai kavitayen..viswash nahi hota.
स्मिति धन्यवाद.......
रामा........ मै जानता हू यह कामेंट्स आपने किस से लिखवाऐ हैं. हा हा हा
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