Saturday, April 19, 2014

‘स्क्रेबल‘


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
उस सुर्ख शाम

चांद के साथ

तेरे-मेरे बीच का एक टुकड़ा

उतर गया था निशब्द

दरिया में

 

उस टुकड़े से टूटने की कसक

रोज़ खींच लाती है हर शाम

इस पिघलते सागर तक

 

वक्त के उस बिछड़े

टुकड़े के लौटने की बाट में

मेरी जि़न्दगी का स्क्रेबल

आज भी अनसुलझा पड़ा है

No comments: