Saturday, April 19, 2014

कुछ शेर

कहा था उसने, एतबार किए जा रहे हैं हम
वादे पर उसके जिए जा रहे हैं हम
 
दुआओं के असर से है विश्‍वास उठ गया
दवाएं पर दवाएं पिये जा रहे हैं हम
 
बस्‍तों में बच्‍चों के किताबे हों, यह जरूरी है मगर
उनमें पतंगों की जगह, क्‍यों कम किए जा रहे है हम
 
तहरीर-ए-जिन्‍दगी को हम ज़रा समझ न पाए
आशआरों पर अपने वाह-वाह किए जा रहे हैं हम
 
कहा था उसने, एतबार किए जा रहे हैं हम
वादे पर उसके जिए जा रहे हैं हम
 

फुहारें


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 


हर मौसम बरसती

तेरी हंसी की फुहारें

तब भी भिगों जाती थी

जब मैं रस्मों-रिवाज़ों की बरसाती ओड़े

बचा करता था बारिशों से

 

पर अब

वही फुहारें

रिम-झिम करती

फिर-फिर भिगों जाती हैं

मेरी डायरी के कई पन्ने

‘स्क्रेबल‘


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
उस सुर्ख शाम

चांद के साथ

तेरे-मेरे बीच का एक टुकड़ा

उतर गया था निशब्द

दरिया में

 

उस टुकड़े से टूटने की कसक

रोज़ खींच लाती है हर शाम

इस पिघलते सागर तक

 

वक्त के उस बिछड़े

टुकड़े के लौटने की बाट में

मेरी जि़न्दगी का स्क्रेबल

आज भी अनसुलझा पड़ा है