सरसराती पैसेंजर ट्रेन की
अधखुली खिड़की से,
पूर्णिमा के चांद को
एक-टक निहारती
चमचमाती चन्द्रिकाओं से ज्योतित
चन्दीले सपनों के गुम्फनों में
विस्मृत-सी भटकती
'अनामिका'
यकीनत:
दूर के ढोल की सुहानी थाप पर
अपने ख्वाबों की परियों को
अपनी ही वांछनाओं की डोरी से साध
कठपुतलियों सी नचाती
मन्द-मन्द मुस्काती
भविष्यत की आशाओं के नीड़ में
चहकती
खिलखिलाती
खुश है ।
मगर -
वहां के कायदे-कानूनों से नावाकिफ
बे-खबर इस बात से कि -
वहां उसकी परियों की सांसे तक
घुट के रह जाएंगी ।
और
मात्र नैराश्य दात्री निर्जीवता
उसके मनोहारी सपनों के खाकों में
रंग भरने में स्वयं को असमर्थ बता
उसे
इस नश्वर जहान की
नश्वर खुशियों तक से भी
महरूम कर जाएंगी ।
फिर -
इन बेजान चन्दीले सपनों की सड़ांध झेलना
उसके बूते में नहीं होगा,
और
नश्वर खुशियों की सजीवता
रह-रह कर कचोटीगी उसे
भीतर तक ।
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