Sunday, May 6, 2012

कुछ भी नहीं बदला

क्‍यों मज़ाक करते हो यार....


एक दिन अचानक
प्रेमचन्‍द के 'होरी' से हो गया मेरा सामना
शहर के एक नामी मॉल के बाहर
हाथ फैलाये बैठा था वह अनमना

मैने कहा
देखा तुमने हम कितना आगे बढ़ गये हैं
विकास की सीडि़यों पर सीडि़या चड़ गये हैं
देश का बदल गया है हर एक रंग
कितना बदल गया है हमारे जीने का ढंग
हर तरफ कितनी खुशहाली है
मानो हर दिन होली और हर रात दिवाली है

इतना सुनना था कि
उसके होंठो पर आ गयी एक मुस्‍कान हल्‍की
पर आंखों से उसके बेचारगी सी झल्‍की
यूं तो वह मुस्‍कुरा रहा था
पर रोम-रोम जैसे उसका कराह रहा था

डूबती-सी आवाज़ में वह बोला
वक्‍त कहां बदला है साहब
बदला तो है बस इन्‍सान
नीयत खोटी हो गयी है इसकी
और घट गया है इसका इमान

मैंने कहा क्‍या कह रहे हो तुम
देखते नहीं कि हमने क्‍या से क्‍या कर दिया
अंग्रेजों को देश से किया बाहर और
राजाओं का राजपाठ है जनता को दिया
अब न रहा है राजतन्‍त्र और
न रही है अंग्रेजी सरकार
लोगों का है लोकतन्‍त्र और
जनता की है सरकार

क्‍यों मज़ाक करते हो मेरे यार.....
'होरी' बोला
क्‍यों मज़ाक करते हो यार......

विकास होता तो सबके चेहरे पर होती मुस्‍कान
चन्‍द सिक्‍कों की खतिर न मारता कोई इन्‍सान
मुझ को तो कल और आज में लगता नहीं कोई फर्क
मेरी जिन्‍दगी तो जैसे पहले थी वैसी ही है एक नरक

पहले भी मैं दुनिया को खिलाता था और खाली रहता था मेरा पेट
आज भी उगाता हूं मैं और खा जाते है सब जमीदार और सेठ
मेरी उगाई फसलों का दाम वहीं तय करते हैं
मेरे पसीने की कमाई से वही अपनी तिजोरी भरते है

कुछ भी तो नहीं बदला है...जनाब
पहले भी उधार की वजह से मै ही था मरता
आज भी कर्ज के कारण खुदकुशी मै ही हूं करता

और जनाब ....
यह भी कहना है बेकार कि जनता की है सरकार
बस नेताओं की टोपी बन गए हैं जो राजाओं के थे ताज
आज भी यह राजसुख ही भोगते है और करते है राज
पहले राजा पुश्‍त-दर-पुश्‍त थे आते
अब भी नेता अपनी वंश परम्‍परा को ही आगे हैं बढ़ाते
बस राजाओं ने बदला है नेताओं का चोला
कहां से आती है इतनी दौलत यह राज आज तक नहीं खोला

कानून से भी लम्‍बे हैं इनके हाथ
जनता को लूटने में करते हैं यह डाकुओं को मात

बेशरमी का आंखों पे इनकी पर्दा पड़ा है
दौलत का नशा इनके सर पर चड़ा है
लबालब भरा इनके पापों का घड़ा है
इनके कुत्‍तों के पट्टो पर भी हीरा जडा है
पर प्रेमचन्‍द का 'होरी' उसी पायदान पर खडा है
पर प्रेमचन्‍द का 'होरी' उसी पायदान पर खडा है

गजल

दुख समन्‍दर हो,तो ही आंख से आंसू नमकीन निकलता है
इश्‍क उजड़ने तो नही देता, पर बरबाद बहुत करता है

यकीनन रोटी के दिलासों ने किया होगा उसको मजबूर
वर्ना घर छोड़ अपना पराये देश, कौन निकलता है  

इसकी मासूमियत तो देख, ज़रा इसकी सादगी तो देख
किसे यकीं होगा, यही है, जो जफाएं हज़ार करता है

खामोशियाँ, बैचेनियाँ, बेताबियाँ, कयामत तक साथ देती हैं
आखरी सफर पर भी इन्‍सान अकेला कहां चलता है

जी तो बहुत करता है कि मुहब्‍बत में जान दे दूं मै
पर बुमुरर्वत इस जहान में मुहब्‍बत कौन करता है