कहां हो तुम ?
सुनो......
रात आज फिर गुनगुना रही है
तुम्हारा प्रेमगीत
हौले-हौले ।
वही प्रेमगीत
जो
धीमे-धीमे
लोरी-सा
फुसफुसाती थी तुम
मेरे कानों में ।
सुनकर जिसे
मै
मदहोश-सा
तुम्हें अपलक निहारता
पूरी रात गुजार देता था,
गहरे जागते हुए,
तुम्हारी मंद-मंद
जलती हुई
आंखों की रौशनी में ।
आज फिर
अपलक निहार रहा हूं
मै,
इस रात को,
पर असंख्य सितारों से घूरती रात,
अपने पैनी रौशनियों से
मजबूर कर रही है मुझे
बंद आंखों से करवटें बदलते हुए
रात गुजारने को ।
कहां हो तुम ?
मैं निहारना चहता हूं तुम्हें
आज फिर,
अपलक ।