अपने ही गर्म बदन की तपिश
बिस्तर पर छोड़ उठा
तो मन
एकदम शान्त था...
प्राचीन शिव-मन्दिर के
बूड़े पीपल के तले वाले
उस छोटे-से तालाब सा
एकदम शान्त...
अंधेरी खामोश रात
रातभर मेरे सिरहाने बैठ
अपनी निशब्द थपकियों से
झाड़ती रही थी
पिछले दिन की घूल..
मेरे तन-बदन
तथा दिल और मन से
गहरी पैठी धूल...
और धूल का गहरा पैठा हर अंश...
कितना मासूम लग रहा है यह दिन
अभी-अभी मुस्कुराना सीखे शिशु की
बालसुलभ मुस्कान सा...
नरम,
निश्छल
मालूम है मुझे
पहर-दर-पहर
आस्तीनों में छिपे
इस दिन के हाथों के बढ़ते नाखून
शाम ढलते-ढलते
लहू-लुहान कर
इन निरीह मन को पटक जाएंगे
फिर
अंधेरी खामोश रात की
कोसी-कोसी
मखमली गोद में...
पहर-दर-पहर
खूंखार होते उस आदमखोर दिन से
कितने यत्नों से
सहेज कर रखी होंगी यह निशब्द थपकियां
इस खामोश रात ने
मेरे लिए
सिर्फ मेरे लिए...