Tuesday, December 8, 2009

बेताब सूरज

ढलती हुई शाम
सागर की गहराई में उतर जाने को बेताब सूरज
मेरी उंगलियों में उलझी तेरी उंगलिया

एक दूसरे के इतने करीब
कि जमाने की हर निगाह से कोसों दूर

पैरों में ठंडी रेत की मीठी चुभन को रौंदते
खामोशी को गुनगुनाते

मीलों चलते रहें
रात के ढलने तक

साथ चलोगी न ..................

Sunday, June 28, 2009

तू और तेरी मुहब्‍बत

कौन देता है जान, कौन किसके लिए मरता है

हर शख्स यहां अपने ही लिए जीता-मरता है ।।

नहीं ऐसा मिला कोई जो कहे कि तेरा हूं मैं,

मैं हूं बस उसी का हर-एक यही दम भरता है ।।

जो न आए हैं अब तक, वो अब न आएंगे,

किसको फुर्सत है तू किसका इंतजार करता है ।।

यह दिन किया था तय नसीब ने तेरी मौत के लिए,

तूने जान दी उन पर, कौन इसका यकीन करता है ।।

जी तो बहुत करता है कि मुहब्‍बत में जान दे दूं मै,

पर बेमुरर्वत इस जहान में मुहब्‍बत कौन करता है ।।

Sunday, February 1, 2009

निरीह मन

अधखिली सुबह की खुमारी ओढ़े
अपने ही गर्म बदन की तपिश
बिस्‍तर पर छोड़ उठा
तो मन

एकदम शान्‍त था...
प्राचीन शिव-मन्दिर के
बूड़े पीपल के तले वाले
उस छोटे-से तालाब सा
एकदम शान्‍त...

अंधेरी खामोश रात
रातभर मेरे सिरहाने बैठ
अपनी निशब्‍द थपकियों से
झाड़ती रही थी
पिछले दिन की घूल..
मेरे तन-बदन
तथा दिल और मन से
गहरी पैठी धूल...
और धूल का गहरा पैठा हर अंश...

कितना मासूम लग रहा है यह दिन
अभी-अभी मुस्‍कुराना सीखे शिशु की
बालसुलभ मुस्‍कान सा...
नरम,
निश्‍छल

मालूम है मुझे
पहर-दर-पहर
आस्‍तीनों में छिपे
इस दिन के हाथों के बढ़ते नाखून
शाम ढलते-ढलते
लहू-लुहान कर
इन निरीह मन को पटक जाएंगे
फिर
अंधेरी खामोश रात की
कोसी-कोसी
मखमली गोद में...

पहर-दर-पहर
खूंखार होते उस आदमखोर दिन से
कितने यत्‍नों से
सहेज कर रखी होंगी यह निशब्‍द थपकियां
इस खामोश रात ने
मेरे लिए


सिर्फ मेरे लिए...